ये बहुत अँधेरे भरे दिन हैं, बहुत गहरी चुभने वाली बे-इज़्ज़तियों के दिन.... ऐसे दिन जब अगर बहुत देर तक एकांत ना मिले तो बहुत से आँसू भर जाते हैं मन मे. मैं चारों तरफ के शब्दों, तस्वीरों और अपने माहौल की हर चीज़ में कोई cue तलाशता हूँ -जैसे रौशनी की एक बूंद की तलाश है. अजीब आदत है , बहुत बहुत individualistic, बहुत अकेलेपन से भरी हुई पर शायद एक construct होता है हमारा। एक तरह से बने होने हैं हम. मुझे हमदम वो लम्हे याद हैं, जब इन दिनों के साथ मेरे संघर्ष बदल गए थे - जब मैंने Django Unchained पढ़ा था कहीं किसी दोपहर किसी ट्रैन में, या फिर अँधेरी के उस साईं मंदिर की सीढ़ियों का वो दिन और उस दिन का cognition या फिर dear sugar की वो खुद को लिखी चिट्ठी। ये सारे मोमेंट्स बहुत अंधेरों में आये वो लम्हे थे, जिनके पहले और जिनके बाद ज़िंदगियाँ अलग थीं. मैं आज़ाद होना चाहता हूँ और चाहता हूँ रौशनी के एक क़तरे जैसे शब्द। शब्द जो कहीं है मेरे अंदर पर शायद मुझे कहीं बाहर तलाश है, किसी अखबार, किसी टीशर्ट पर लिखे हुए शब्दों की तलाश।
आज अनुराग कश्यप का एक इंटरव्यू देखा और जैसे फूट फुट कर रोया, यूँ रोना जैसे आंसू रुकें ही नहीं। आप एक हारे हुए, एक बेगैरत आदमी को देखे हो, ज़िन्दगी के nadir पर खड़ा हुआ और आप उसे वापस आता हुआ देखते हुए. जैसे गूंजते हैं उसके शब्द -
"I felt that I am not wanted here.... "
"When you feel like that nobody wants you here and you are forcing yourself on to the people.., you think it is best to get out"
"You become your own worst enemy"
"It came from the phase of not being sucked in.
"If I allow myself to sink and dwell in the failure of it, I will drown."