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by TanvirSalim1
on 4/11/15
जीवन की नीरसता नित दिन घटती बढ़ती रहती है.
जीने की चेष्टा कारण आत्मा जर्जर होती रहती है.
क्या पाया क्या खोया का खेल.
सदियों से होता आया है.
विषमता का मेल.
कब तक चल पाया है?
एक नये अध्याय की चेष्टा.
हेतु कल का स्वागत है.
मगर भला इस दुनिया में.
ऐसा कब हो पाया है?
-तनवीर सलीम